गुरुपूर्णिमा

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 ’एक विश्वास रहे पूरा कर्ता हर्ता गुरु ऐसा ।’

भारतीय संस्कृति में ’गुरुपूर्णिमा’ उत्सव का अनन्य साधारण महत्व है। आषाढ़ महीने की पूर्णिमा के दिन यह पर्व भारत के कोने- कोने में मनाया जाता है। इसी दिन आदिगुरु वेदव्यासजी का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को ’व्यासपूर्णिमा’ भी कहा जाता है। सद्‍गुरु के ऋणों का और उनके निरपेक्ष प्रेम का स्मरण करके ’सद्‍गुरु की सत्ता अपने जीवन में अखंडरूप में बनी रहे’ इसी भाव से सद्‍गुरु को वंदन करके, उनका पूजन करके यह उत्सव मनाया जाता है।

 

इस उत्सव की परंपरा भारत में कैसे शुरु हुई इसकी एक सुंदर कथा बताई जाती है। अठारह पुराण, महाभारत जैसे महाकाव्य लिखने पर भी महर्षि वेदव्यासजी का मन तृप्त और संतुष्ट नहीं था। उनका चित्त अशांत था। तब वेदव्यासजी के गुरु नारदमुनीजी ने उन्हें दर्शन दिया और उन्हें श्रीकृष्ण का गुणसंकीर्तन करनेवाले ग्रंथ की रचना करने की आज्ञा दी। महर्षि व्यास ने यह आज्ञा शिरोधार्य मानकर उसका बाखूबी पालन किया तब उन्हें गुरुवचन की अद्‍भुत अनुभूति हुई। ’गुरुजी के आज्ञापालन से ही शांति, तृप्ति एवं संतोष प्राप्त होता है। उनकी आज्ञा ही मेरा संकल्प है जब हम ऐसा मानने लगते हैं और उसके अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं तभी यह नरजन्म सार्थक होता है।’ यह बोध व्यासमहर्षिजी की इस कथा ने हमें दिया। महर्षि वेदव्यासजी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ’गुरुपूर्णिमा’ समस्त भारत में मनाए जाने की परंपरा शुरु हुई। यह कथा यही बात बताती है।

सद्‍गुरु श्री अनिरुद्ध उपासना ट्रस्ट, श्री अनिरुद्ध उपासना फाऊंडेशन और संलग्न संस्थाओं द्वारा हर वर्ष ’गुरुपूर्णिमा’ उत्सव बडे़ ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। इसमें लाखों श्रद्धावान भाग लेते हैं। संस्था द्वारा पहला गुरुपूर्णिमा उत्सव सन १९९६ में दादर, मुम्बई में बडे़ ही उत्साह के साथ मनाया गया था। तत्पश्चात प्रतिवर्ष यह उत्सव मनाया जाता रहा है।

इस उत्सव की शुरुआत सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी (बापूजी) के घर से गुरुपादुकाओं का अर्थात श्रीनरसिंह सरस्वतीजी की पादुकाओं के आगमन से होती है। साथ ही सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी के घर के मंदिर से श्रीगुरुदत्तात्रेयजी की मूर्ति उत्सवस्थल पर लाई जाती है। श्रीनरसिंह सरस्वतीजी की पादुकाओं का उत्सवस्थल पर षोडश पूजन किया जाता है। उन पर जलाभिषेक किया जाता है। इसके बाद श्रद्धावान इन पादुकाओं के दर्शन का लाभ उठाते हैं। गुरुगीता में सद्‍गुरु के चरणकमल सकलतीर्थमय हैं ऐसा उल्लेख मिलता है। इसलिए श्रीनरसिंह सरस्वतीजी की पादुकाओं पर किए जानेवाले जल-अभिषेक का जल तीर्थ स्वरूप श्रद्धावानों को दिया जाता है।

इसी तरह श्रीगुरुदत्तात्रेयजी की मूर्ति के समक्ष ’ॐ द्रां दत्तात्रेयाय नम:।’ इस मंत्र का अखंड पठन किया जाता है। (’द्राम्‌’ श्रीगुरु दत्तात्रेयजी का बीजमंत्र है। दत्तमालामंत्र में ’द्राम्‌’ बीज का उल्लेख है।)

इसके अलावा उत्सवस्थल पर मूल सद्‍गुरुतत्वस्वरूप स्वयंभगवान श्री त्रिविक्रमजी का पूजन किया जाता है।

 

त्रिविक्रम पूजन का महत्व:

’सचमुच त्रिविक्रमजी का स्पर्श जिसकी बुद्धि, मन या तन को एक बार भी हो जाए और वह व्यक्ति इस भावस्पर्श को भक्ति से या पछतावे से या गलती सुधारकर स्वीकार करे तो उस भक्त का जीवन सौंदर्य की खान बन जाता है।’ बापूजी दैनिक प्रत्यक्ष के तुलसीपत्र क्रमांक १४८३ में इस बात का स्पष्ट उल्लेख करते हैं।

’श्रद्धावानों के जीवन में आनेवाले संकटों के समय मूल सद्‍गुरुतत्व अर्थात त्रिविक्रमजी श्रद्धावान को अपने साथ बांध लेते हैं और सच्चे श्रद्धावान को किसी भी संकट से परे रखते हैं। त्रिविक्रमजी किस मार्ग से श्रद्धावान की सहायता करते हैं, श्रद्धावान यह सोच भी नहीं सकता’, इस मूल सद्‍गुरुतत्व त्रिविक्रमजी के बारे में बापूजी ने तुलसीपत्र क्र. १४६४ में लिखा है।

’त्रिविक्रमजी की पूजा, उपासना एवं किसी भी प्रकार की भक्ति श्रद्धावानों को किसी भी स्तर का एवं किसी भी प्रकार का अभाव, दीनता एवं दुर्बलता दूर करने का निश्चित मंगलदाई मार्ग है क्योंकि, त्रिविक्रम स्वयं ही ’सगुण’ हैं और नव-अंकुर-ऐश्वरयों से ओतप्रोत हैं। त्रिविक्रमजी अपने भक्तों को उनका त्रिविक्रम पर होने वाले श्रद्धा के एवं विश्वास से कहीं अधिक फल देते रहते हैं।’ त्रिविक्रमजी इस त्रि-आयामी (थ्री-डायमेन्शनल) विश्व में केवल श्रद्धावानों के लिए ही त्रिविध आधार हैं।’ ऐसा उल्लेख तुलसीपत्र अग्रलेख क्र. ५२० में आता है।

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श्रद्धावानों को इस उत्सव में इस भगवान त्रिविक्रम के पूजन का अवसर प्राप्त होता है।

त्रिविक्रमजी की उपासना अथवा पूजा केवल ’साकार’ की या पवित्र आकृति की उपासना या पूजा नहीं है बल्कि, यह पवित्रतम एवं महादिव्य ’सगुण’ की उपासना है, गुणों की उपासना है। उत्सव स्थल पर त्रिविक्रम पूजन के स्थान के बीचोबीच त्रिविक्रम लिंग होता है, तथा प्रत्येक पूजक श्रद्धावान के समक्ष थाली में तीन कदम होते हैं। त्रिविक्रमजी के ये तीन कदम हैं – अकारण कारुण्य, क्षमा एवं भक्ति का स्वीकार। अपने इन्हीं तीन कदमों से त्रिविक्रमजी हमेशा श्रद्धावानों के जीवन से दुष्प्रारब्ध नष्ट करते रहते हैं और श्रद्धावान के जीवन में आनंद भर देते हैं। इस थाली में रखे हुए तीन कदमों के पूजन का अर्थ यह है कि, त्रिविक्रमजी अपने इन्हीं तीन कदमों में हमारे जीवन को व्याप्त कर लें। यही है श्रद्धावान द्वारा त्रिविक्रम से की गई प्रार्थना।

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भक्तिस्तंभ की परिक्रमा:

गुरुपूर्णिमा उत्सव का एक महत्वपूर्ण अंग! बीच में निर्माण किये गए भक्तिस्तंभव पर सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी के ’नित्यगुरु’ की पादुकाएं रखी जाती हैं तथा अवधूतचिंतन उत्सव में से दो अवधूतकुंभ भी रखे जाते हैं।

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रामनाम बही के पन्नों के गूदे से बनाई गई रामनाम इष्टिकाएं (ईंटें) अपने सिर पर लिए श्रध्दावानों को गजर की धुन पर भक्तिस्तंभ के इर्दगिर्द परिक्रमा करने का अवसर मिलता है, अर्थात वहां के पवित्र स्पंदनों का लाभ सभी श्रद्धावानों को प्राप्त होता ही है।

’मेरी सद्‍गुरुभक्ति की इष्टिका पर मेरी सद्‍गुरु माउली खड़ी हैं यही भाव मन में लिए मैं सद्‍गुरु परिक्रमा कर रहा हूं, सद्गुरुराया के चरण मेरे हृदय में हमेशा के लिए बिराजमान होवें’ (कीजै नाथ हृदय महँ डेरा) यह भक्तिभाव धारण किए हुए श्रद्धावान भक्तिस्तंभ के इर्दगिर्द परिक्रमा करते हैं।

 

इसके अलावा गुरुपूर्णिमा के दिन भक्तिगंगा से अर्थात सभी श्रद्धावानों के बीच से सद्‍गुरु अनिरुद्धजी के पदचिन्हों की पालकी फेरे लगाती रहती है। इस पालकी के साथ कु्छ श्रद्धावानों का समूह गाता-बजाता, गजर करता हुआ उत्सव स्थल पर सर्वत्र फेरे लगाता रहता है। इन पदचिन्हों पर माथा टेकने एवं दर्शन करने का अवसर प्रत्येक श्रद्धावान को मिलता है। इन पदचिन्हों पर माथा टेकना यानी साक्षात सद्‍गुरु के चरणों पर माथा टेकना ही है, यही प्रत्येक श्रद्धावान का भाव होता है।

गुरुपूर्णिमा में दिनभर अखंड प्रज्वलित अग्निहोत्र में श्रद्धावान ऊद अर्पण करके अपने योगक्षेम हेतु प्रार्थना करते हैं।

हर घंटे श्रीअनिरुद्धचलिसा का पाठ किया जाता है, श्रद्धावान इसमें भाग लेते हैं।

इसके अलावा सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी द्वारा हस्तस्पर्श किया गया उदी-प्रसाद सभी श्रद्धावानों को दिया जाता है। श्रद्धावान परमपूज्य सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी के दर्शन रात के ९.०० बजे तक कर सकते हैं और बाद में महाआरती की जाती है।

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सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी श्रद्धावानों से कभी भी किसी भी प्रकार की गुरुदक्षिणा, भेंट, ग्रीटिंग कार्ड, फल, हार, मिठाई, पैसे, आदि नहीं स्वीकारते।

गुरुपूर्णिमा गुरुकृपा का तथा गुरुभक्ति का आनंद लूटने का दिन है। सद्‍गुरु के प्रति कृतज्ञताभाव एवं अटल श्रद्धा व्यक्त करने का दिन ही गुरुपूर्णिमा है। सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी के प्रति सप्रेम कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए श्रद्धावान गुरुपूर्णिमा का दिन सद्‍गुरु के सान्निध्य में मनाते हैं।

’अनिरुद्धा मैं तेरा कितना ऋणि हो गया।’ इस ऋणज्ञापक स्तोत्र के अनुसार इसी भाव को मन में धारण किए हुए श्रद्धावान इस परम पावन दिन सद्‍गुरु के दर्शन की चाह में उत्सुकतापूर्वक इस मंगलमय वातावरण में उपस्थित रहते हैं।