“दशहरे का वास्तव में महत्व है सीमोल्लंघन का। सीमोल्लंघन अर्थात अपनी सीमा के बाहर जाना। इसका अर्थ अच्छी सीमाएं छोड़ना नहीं है। मर्यादा के बाहर बर्ताव करना निश्चितरूप से गलत है। सीमोल्लंघन का सही अर्थ है सीमाओं का विस्तार करना। अपनी क्षमताएं, Capacity, Potency बढ़ाने का यह दिन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है।” सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने २४ अक्तूबर २०१० के दिन दशहरे का महत्व समझाते हुए यह जानकारी दी थी।
दशहरे के दिन हम सुबह को माता सरस्वती की और शाम को शस्त्रों की पूजा करते हैं। उन्होंने स्पष्टरूप से कहा था कि, ज्ञान और विज्ञान की यह पूजा अपनी कुशलता अधिक बढ़ाने के लिए होती है।
वैदिक संस्कृतिनुसार अश्विन महीने के पहले नौं दिन ‘अश्विन नवरात्री’ के रूप में मनाए जाते हैं और दसवें दिन दशहरा अर्थात विजयादशमी मनाई जाती है। वैदिक संस्कृति में साढ़ेतीन शुभमुहूर्तों में से दशहरा भी एक शुभमुहूर्त माना जाता है।
त्रेतायुग में प्रभु श्रीराम और रावण के बीच जब घनघोर युद्ध हुआ तब आदिमाता महिषासुरमर्दिनी ने ‘श्रीराम को विजय प्राप्त होगा’ यह वरदान दिया था। आदिमाता महिषासुरमर्दिनी की कृपा से श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त की। इस विजय के साथ श्रीराम १४ वर्षों का वनवास पूरा करके विजयादशमी के दिन अयोध्या लौटे थे। इस विजय के स्मरणार्थ तथा सीमोल्लंघन कर विजयोत्सव मनाने का दिन ही दशहरा कहलाता है।
प्रभु श्रीरामचंद्रजी का रावण पर विजय यह सत्वगुणों का दुर्गुणों पर विजय या नीतिमत्ता का अनीति पर विजय का प्रतीक है। इसीलिए दशहरे के दिन हम ’उस विजय को स्मरण’ के तौर पर आज भी मनाते हैं। उस दिन सोने के अर्थात उत्तम चीजों के प्रतीक के रूप में ’आपटा’ वृक्ष के पत्ते एक-दूसरे को देने की सांस्कृतिक प्रथा आज भी निभाई जाती है।
त्रेतायुग के रामायण के दौर के बाद और हजारों वर्षों के द्वापार युग के बाद, आज का दौर कलियुग के दुष्ट चक्र का फेरा ही है। इस काल के प्रवास में मनुष्य को पूर्वजन्म के पापों और इस जन्म की गलतियों एवं दुषकर्मों के कारण प्राप्त दुष्प्रारब्ध की वजह से संकट और दु:खों का सामना करना पड़ता है। मगर सद्गुरु कृपा से जब हम आने वाले संकटों का सामना यशस्वी रूप से करते हैं और दुष्प्राब्ध की दलदल से बाहर निकलते हैं तो वही हमारे विजय का पल होता है। विजय का सुनहरा पल ही सोना कहलाता है।
क्या विजयादशमी केवल कैलेंडर में दिखाए गए दिन ही मनानी है? इसके बारे में दशहरे के प्रवचन में सद्गुरुरु श्रीअनिरुद्धजी के कहा है –
“अश्विन महीने का दसवां दिन दशहरा अत्यंत शुभ एवं पवित्र दिन है इसमें कोई संदेह नहीं। मगर जब- जब अपने जीवन में अच्छाई- बुराई पर, नीतिमत्ता- अनीति पर विजय प्राप्त करती है तब- तब व्यापकता से यह विजयोत्सव मनाया जाना चाहिए। जब सद्गुण, नीतिमत्ता जैसी उत्कृष्ट बातें अंत में यशस्वी ही साबित होती हैं तब हमेशा विवाद, संघर्ष जैसी बातें अधिक प्रखर हो उठती हैं।
हमारी बुराई से लड़ने की ताकत जितनी अधिक होती है उसके परिणामस्वरूप हमारे विजय के सुनहरे पलों की संख्या भी अधिक होती है। बुराई पर विजय जैसे सुनहरे पलों को हमें हमेशा याद रखना चाहिए। वास्तव में यही ’सोने की खान है’…… ऐसा प्रत्येक सुनहरा पल ही ’विजयादशमी’ है!
दशहरा उत्सव के उपक्रम –
इस दिन सभी श्रद्धावान सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी के मार्गदर्शन के अनुसार ’विजयोपासना’ करते हैं। अर्थात इस दिन श्रीअनिरुद्धजी द्वारा पुनर्जीवित किए हुए भारतीय प्राच्यविद्या प्रशिक्षण में अंतर्भूत आयुधों का पूजन किया जाता है। इसमें मुद्गल, दुग्गल (Dumb-bell), फरी-गदा, जोडलाठी, बेत, लाठी आदि का समावेश होता है।
विजयोपासना –
१) रामरक्षा पठण – १ बार
२) हनुमानचालिसा पठण – १ बार
३) श्रीआदिमाता शुभंकरा स्तवन पठन – २४ बार
४) तत्पश्चात सभी श्रद्धावान ‘ॐ कृपासिंधू महाबलोत्कट श्रीअनिरुद्धाय नम:।’ इस मंत्र का जप ५४ बार करते हैं।
इस मंत्रजप के बाद दत्तावतार श्री अक्कलकोट स्वामी समर्थजी का गजर किया जाता है।
’श्री स्वामी समर्थ जय जय स्वामी समर्थ … महाराज / (आजोबा)…
श्री स्वामी समर्थ जय जय स्वामी समर्थ’
इस गजर के बाद माता चण्डिका का श्रीप्रसन्नोत्सव में किया गया गजर ‘जयंति मंगला काली भद्रकाली कपालिनी….’ गजर के साथ ही उपासना समाप्त होती है। इस उपासना एवं गजर में सभी श्रद्धावान बड़े ही उत्साह तथा भक्तिभाव से शामिल होते हैं।
श्रीसरस्वती एवं श्रीमहासरस्वती पूजन –
सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी के मार्गदर्शनानुसार श्रद्धावान अपने– अपने घर पर श्रीमहासरस्वती एवं श्रीसरस्वती का अतिश्रेयस्कर पूजन करते हैं। पूजन के लिए पत्थर की स्लेट पर ही बिंदूओं एवं रेखाओं के इस्तेमाल से श्रीमहासरस्वती एवं सरस्वतीजी की प्रतिमाएं चित्रित करते हैं। (श्रीमहासरस्वती व श्रीसरस्वतीचे चित्र देणे) दोनों चित्र एकदूसरे के आस-पास ही बनाए जाते हैं और फिर उनका पूजन किया जाता है। श्रद्धावानों का विश्वास है कि, इसीसे उन्हें भाग्योदय की ऊर्जा प्राप्त होती है। ज्ञान से प्रेम की पूजा एवं प्रेम से ज्ञान की पूजा इन दोनों का एकत्रीकरण अर्थात इन दो प्रतीकों की पूजा।
दशहरे के इस विजयोत्सव के दिन, ’हमारा दुष्प्रारब्ध, हमारा अहंकार और षड्रिपुरूपी रावण का नाश करने के लिए हमारी मनोभूमि में सद्गुरु भक्ति का सेतु बांधा जाए’ यह प्रार्थना सभी श्रद्धावान सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी से करते हैं। हम वानरसैनिक की तरह भक्ति-सेवा और मर्यादापालन का स्वीकार करें तो वे भक्तवत्सल सद्गुरु हम तक अवश्य पहुंचेंगे और दुष्प्रारब्धरूपी रावण का नाश अवश्य करेंगे क्योंकि, श्रद्धावान का विश्वास होता है, अनिरुद्ध महावाक्य पर ही !
अनिरुद्ध महावाक्य –
युद्धकर्ता श्रीराम: मम। समर्थ दत्तगुरु मूलाधार:।
साचार वानरसैनिकोऽहम्। रावणवध: निश्चित:॥