विद्या ज्ञान के देवता श्री गणपति (गणेशजी ) का उत्सव पुरे देशभर में ही नहीं बल्कि पुरे विश्व में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। यह उत्सव प्रति वर्ष भाद्रपक्ष महिने के चतुर्थी के दिन गणेश चतुर्थी के नाम से मनाया जाता है। इस दिन हम सभी श्रद्धावान गणेशजी की मूर्ति अपने घर लेकर आते हैं और पुरी श्रद्धा के साथ हम सभी गणेशजी की मूर्ति की स्थापना करते हैं और पूजा-पाठ, आरती ,भजन बहुत ही प्यार से करते हैं और गणपति बाप्पा को प्रसाद का भोग चढ़ाते हैं। नियमानुसार पूजा के उपरांत इस मूर्ति का पुनर्मिलाप करना पड़ता है तदुपरांत सभी श्रद्धावान गणपतिबाप्पा से दिल से यह कामना करते हैं कि अगले वर्ष बाप्पा फिर से आना। इसी भाव के साथ गणेशजी की मूर्ति का पुनर्मिलाप करते हैं। पर इसके बाद इस मूर्ति का क्या होता है। क्या सच में गणेशजी की मूर्ति पानी में घुलमिल जाती है?
इस विषय में क्या कोई भी विचार करता है?
तब इसका जवाब “नहीं” में ही आयेगा !
फिर ऐसी परिस्थिति में शाश्वत एवं पर्यावरण के लिए सहायक सिद्ध हो सके ऐसा विकल्प क्या है? तत्काल ही यह प्रश्न उठ खड़ा होता है?
इस प्रश्न का एक ही जवाब है ‘इको फ्रेंडली गणेश मूर्ति! आजकल जो मूर्तियां बनती हैं वे प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की बनती हैं जो पर्यावरण के लिए अतिशय हानिकारक होती हैं। इन मूर्तियों के लिए इस्तेमाल किये हुए रंग और प्लास्टर ऑफ पेरिस पानी में नहीं घुलते और इसका प्रभाव हम सभी के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। जहरीले केमिकल के कारण पानी में आम्ल अशुद्धता बढ़ जाती है साथ ही इसे बनाने के लिए जिस धातु का प्रयोग किया जाता है उससे जलजीवन भी खतरे में आ जाता है। और यदि इस पानी का इस्तेमाल रोज़मर्रा के जीवन में किया जाता है तो इससे भी बहुत सारी बीमारियों के जन्म लेने की संभावना बनी रहती है।
इन सभी दुष्परिणामों से बचने के लिए ” सद्गुरु अनिरुद्ध उपासना फाउंडेशन ” ने अपने संलग्न संस्थाओं की मदत से पर्यावरणपूरक गणेश मूर्ति बनाने का उपक्रम हाथ में लिया है। ऐसी मूर्तियां पानी में आसानी से पूरी तरह घुल जाती है और इससे कोई हानि भी नहीं होती है।
2005 से “अनिरुद्धाज यूनिवर्सल बैंक ऑफ़ रामनाम ” एवं “श्री अनिरुद्ध आदेश पथक “इनके माध्यम से तथा श्री अनिरुद्ध बापू जी के मार्गदर्शन के अंतर्गत पर्यावरणपूरक मूर्ति बनाने का कार्य शुरू किया गया है। श्रद्धावानों द्वारा लिखित रामनाम बही के जप वाले कागज़ों का इस्तेमाल करके ये मूर्तियां बनाई जाती है।
इसके लिए कागज़ को भिंगोकर उसके लग्धे में सफ़ेद स्याही एवं, पेड़ से निकला जाने वाला गोंद मिलाया जाता है। पूरा मिश्रण भली-भॉति मिला लेने के बाद उसे सांचे में भरा जाता है और फिर मूर्तियां बनाई जाती है। मूर्ति सूखने के बाद उस पर प्राकृत्रिक रंग (फूड कलर ) का इस्तमाल कर उसे का़फी खुबसूरती से सजाया-संवारा जाता है। ये मूर्तियां पानी में आसानी घुल जाती हैं और इससे पर्यावरण का संतुलन भी बना रहता है।
इस तरह से नविन पद्धतिनुसार मूर्तियां बनाने के लिये संस्था को लाइसेंस प्राप्त होने के बावजूद भी संस्था ने इसका अधिकार स्वयं अपने पास ही न रखकर सर्वसामान्य लोगों के लिए ये तरीका खुला रखा और जनता को पर्यावरण रक्षा के लिए जागृत किया। संस्था के इस उपक्रम के प्रति पुरे जगभर से काफ़ी प्रतिसाद मिल रहा है।
संस्था के तरफ से पहले साल 2005 में 335 मूर्तियां बनाई गईं कुछ सालों तक 3००० मूर्तियां और अब हर साल 6000 से 7000 मूर्तियां बनाई जाती है। 2017 में 6500 श्रद्धावानों ने संस्था की इको फ्रेंडली गणेश मूर्तियों की पूजा की थी। भारत के अलावा ये यू यस , कनाडा , ऑस्ट्रलिया , न्यूज़ीलैंड ,साऊथ अफ्रीका ,श्री लंका एवं खाडी़ देशों के श्रद्धावानों ने भी इन मूर्तियों को अपने-अपने देशों में अपने-अपने घर ले जाकर श्रद्धापूर्वक उनका पूजन किया।
बहुत सारे स्थानों से इको-फ्रेंडली गणेश मूर्ति के प्रति संस्था को पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया गया है।
1 बृहन्मुंबई महानगर पालिका (BMC ) की तरफ से “Go Green Campaign ” के अंतर्गत साथ ही ‘पर्यावरण के पूरक गणेशजी की मूर्तियां’ बनाने के प्रति 2010 से 2012 तक लगातार तीन वर्षों तक संस्था को प्रमाणपत्रों द्वारा सम्मानित किया गया।
2 महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण मंडल (MPCB ) साथ ही मुंबई मिरर असोसियशन ,टाइम्स रेड सेल’ इन सब की तरफ से टाइम्स स्पेशल हरित गणपति अवार्ड 2009’नामक पुरस्कार प्रदान किया गया।
3 2008 में पवई में “निती ” (NITIE ) की ओर से प्रदर्शित किए गए मूर्ति प्रदर्शन में मुंबई के महापौर डॉ शुभा राऊल द्वारा संस्था को गौरावान्वित किया गया।
इस प्रकार निष्काम , निस्वार्थी भाव प्रेरणा से चलने वाले उपक्रम में सभी उम्र कें श्रद्धावान सिंह और वीरा पुरे उत्साह से भागलेते हैं। गणेशोत्सव पर्यावरण पूरक ही होना चाहिए यह अपने कृति से प्रत्यक्षरूप में दिखा देने वाले श्रीअनिरुद्ध उपासना फाऊंडेशन के कार्य में श्रद्धावानों के आगे बढ़ने से पर्यावरण के ह्रास को अवश्य टाला जा सकता है।