आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले का शेषाद्री पर्वत। इस स्थान को अलग पहचान की ज़रूरत नहीं है। शेषाद्री पर्वत, व्यंकटगिरी पर्वत, शेषाचलम पर्वत, तिरुमाला पर्वत इन विभिन्न नामों से पहचाने जानेवाले इस पर्वत पर स्थित व्यंकटेश मंदिर समस्त विश्व के करोड़ों भक्तों का श्रद्धास्थान है। ३०० वर्ष पूर्व रामानुजाचार्यजी ने महाविष्णु तिरुपति बालाजी की एक अनोखी उपासना बहुत ही भिन्न और सुंदर तरीके से की थी। ‘ॐ व्यंकटेशाय नम:’ इस अष्टाक्षरी मंत्र से ’सप्तकोटी अर्चनम्’ करते हुए रामानुजाचार्यजी ने अपने आराध्य देवता की उपासना सफल संपूर्ण की थी। उन्होंने व्यंकटेशजी का यह सप्तकोटी जप वैशाख विनायकी चतुर्थी से वैशाख मोहिनी एकादशी के दरमियान किया था।
सन २००० में ७ मई से १४ मई, अर्थात वैशाख विनायकी चतुर्थी से वैशाख मोहिनी एकादशी के दरमियान ही सद्ग्ररुरु श्री अनिरुद्ध (बापूजी) ने श्रद्धावानों से इसी तरह ‘श्री व्यंकटेश सप्तकोटी जप’ करावाया था। बांद्रा, मुम्बई स्थित श्रीहरिगुरुग्राम में इस उत्सव का आयोजन किया गया था।
‘‘रामानुजाचार्यजी ने जैसे विधिवत, जिस पध्दति से, जिस भावना से, जिस भाव से, जिस प्रेम से, जिस भक्ति से यह सबकुछ किया उसके एक लक्षांश ही क्यों न हो, यदि हम सब एक छोटासा अंश भी कर पाएं तब भी यह बहुत ही सुंदर होगा। रामानुजाचार्यजी महान थे, मैं बहुत छोटा हो सकता हूं, हम सभी बहुत छोटे होंगे परं फिर भी उनका अनुकरण करने में कोई बुराई नहीं है। हम छोटे हैं, वे महान हैं ऐसा नहीं सोचना चाहिए। ’मैं किस मार्ग से जाऊं?’ शौनकमुनी ने एक बार ऐसा प्रश्न अपने गुरु से पूछा था। उनके गुरु ने उन्हें उत्तर दिया ‘येन मार्गेन महाजना गत:’, जिस मार्ग से श्रेष्ठ पुरुष जाते हैं उस मार्ग से ज़रूर जाना चाहिए। वहां कोई धोखा नहीं होता। आज हमें रामानुजाचार्यजी के मार्ग पर चलना है।” यह बात बापूजी ने श्री व्यंकटेश सप्तकोटी जप के आयोजन से पहले श्रद्धावानों से कही थी।
व्यंकटेशजी की मूर्ति को हर दिन अलंकारित ‘महापुष्पम् हार’ पहनाया जाता था। अर्पण किया जानेवाला महाभोग भी बहुत ही अनोखा, भव्य होता था। पहले तथा पांचवे दिन १००८ फलों का, दूसरे एवं छठे दिन १००८ लड्डुओं का, तीसरे एवं सातवें दिन १००८ मुरमुरों के लड्डुओं का, चौथे तथा आठवें दिन ९ क्विंटल दही-भात (चावल) के महाभोग अर्पण किए गए। यह प्रसाद और भक्तों द्वारा लाया गया प्रसाद अनाथालयों के विद्यार्थी, बुजुर्ग व्यक्ति तथा गरीबों में बांटा गया।
महाभोग अर्पण करते समय
‘रमया रमणाय व्यंकटेशाय मंगलम्। सर्व लोकनिवासाय श्रीनिवासाय मंगलम्।’ यह जप किया जाता था।
इस उत्सव के दौरान बहुत ही सुंदर आरती की जाती थी। संतश्रेष्ठ पुरंदरदासजी की कन्नड-आरती रचना तथा तमिलनाडु की संत कवयित्री ’देवी अंडाल’ की आरती-रचना सभी भक्तगण, उन भाषाओं को न जानते हुए भी आरती गाने लगे। हर एक घंटे के बाद आरती की जाती थी। उत्सव के पहले ही दिन सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने इन आरतियों का अर्थ श्रद्धावानों को समझा दिया था।
बापूजी ने कहा था, “अगर अच्छी तरह से गति करनी है तो पहले हमें स्थिर होना सीखना चाहिए, और स्थिरता प्रदान करनेवाला बीज है ’ठं’ बीजम्। ’ठं’ व्यंकटेशजी का बीज है। यही विठ्ठलजी का भी बीज है। दोनों बालाजी ही हैं। कर्नाटकु पांडुरंग भी बालमूर्ति ही हैं। ये बालगोपाल हैं। इसी तरह व्यंकटेशजी भी बालगोपाल ही हैं। इन दोनों को मूलत: बालाजी रूप में ही पूजा जाता है। हमें इस ’ठं’ बीज की उपासना करनी है।” सद्गुरु अनिरुद्धजी ने प्रवचन द्वारा व्यंकटेशजी की कथाएं सुनाईं। इसकी वजह से समस्त वातावरण दुलारे विठ्ठलजी की, व्यंकटेशजी की भक्ति और लगन में डूबा हुआ था।